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हर रोज कोई न कोई यह बात दोहरा जाता है कि आखिर आपको क्यों जेल में रखा गया है, सरकार छोड़ती क्यों नहीं! मैं कोई उत्तर दे नहीं पाता, क्योंकि मेरे पास कोई उत्तर है ही नहीं, जो ये समझ सकें। फिर मैं केवल यही कहता हूं कि मुझे क्या मालूम, इंदिरा गांधी जानें कि कब तक हमें जेल में रखकर उन्हें संतोष होगा। वैसे तो वे तब तक किसी को रिहा नहीं करेंगी जब तक उनकी समझ में उनकी सत्ता की सुरक्षा असंदिग्ध नहीं हो जाती।’’ अपनी जेल डायरी में चंद्रशेखर ने 8 फरवरी, 1976 को जो लिखा था उसका यह एक अंश है। यह कई प्रकार से महत्वपूर्ण है। इसमें राजनीति का शास्त्र नहीं है, सत्य है। चंद्रशेखर को इसका किंचित भी अफसोस नहीं है कि उन्हें इंदिरा गांधी ने क्यों गिरफ्तार करवाया। मानों वे इसके लिए मन से पहले से तैयार थे। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से बहुत कांग्रेसी नेता असहमत थे। उनमें चंद्रशेखर को इसलिए इतिहास में बेजोड़ माना जाएगा क्योंकि वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी अपनी असहमति बेपरवाह हो खुलकर व्यक्त करते थे जबकि दूसरे बड़े कांग्रेसी नेता अपने मन में रखते थे, छिपाते थे और इसलिए चुप रह जाते थे।
इसे खोजने पर अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। जब 1974 में मोरारजी देसाई गुजरात विधान सभा भंग करने की मांग के लिए आमरण अनशन पर बैठे तब चंद्रशेखर ही थे जिन्होंने इंदिरा गांधी से भेंट की। उनसे कहा,‘आप निर्णय कर लीजिए कि आप गुजरात खोने को तैयार हैं या सारा भारत।’ ऐसी बेबाकी चंद्रशेखर में ही मिलती थी। इस चेतावनी को इंदिरा गांधी ने समझा। वे नरम पड़ीं। गुजरात विधानसभा भंग करने पर सहमत हुईं। अगर बिहार आंदोलन के बारे में भी इंदिरा गांधी चंद्रशेखर की सलाह और चेतावनी मान लेती तो जेपी से उनका टकराव न होता। हालांकि यह भी सच है कि इमरजेंसी जेपी से टकराव के कारण नहीं लगी। उतना ही सच यह भी है कि इंदिरा गांधी में लोकतांत्रिकता होती तो वे जेपी से टकराव मोल नहीं लेती। जेपी का अपमान नहीं करती। ऐसा कर पाती तो उनके स्वभाव में लोकतंत्र की मर्यादाओं के जीवनमूल्य बचे रहते। वे ही उन्हें इमरजेंसी की गांधारी बनने से बचा देते। ऐसा होता तो इमरजेंसी का महाभारत टल जाता। चंद्रशेखर ने अपनी पत्रिका के एक संपादकीय में सही ही लिखा थाः ‘जेपी राजनीतिक ताकत के लिए नहीं लड़ रहे हैं, इसलिए उन्हें राज्य की शक्ति का प्रयोग करके नहीं हराया जा सकता।’
इसी विचार को कार्यरूप देने के लिए चंद्रशेखर ने कोशिश की कि जेपी और इंदिरा गांधी में संवाद हो। वह संवाद तो हुआ, लेकिन बड़े विवाद में परिवर्तित हो गया। 1 नवंबर, 1974 को जेपी–इंदिरा गांधी की भेंट हुई लेकिन संवाद नहीं हुआ। बातचीत विफल रही। जेपी और चंद्रशेखर इंदिरा गांधी के बारे में एक तरह से सोचते थे। जेपी भी समझते थे कि इंदिरा गांधी इस हद तक पतन को नहीं पहुंचेगी कि देश में इमरजेंसी लगा दें। यह उन्होंने अपनी जेल डायरी में लिखा है। चंद्रशेखर ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘लेकिन इंदिरा जी इमरजेंसी जैसा कदम उठाएंगी, इसे मैं नहीं जानता था।’
उन्होंने अपनी आत्मकथा में यह भी लिखा है कि ‘आपातकाल की घोषणा होने के कुछ दिन पहले कांग्रेस कार्यसमिति में एक प्रस्ताव आया, जिसमें जेपी का नाम लेकर उनकी आलोचना की गई थी। मैंने उसका विरोध किया। सवेरे बैठक तीन–चार घंटे चली। मैं अकेला था। कार्यसमिति के अन्य सदस्यों की एक राय थी। लगभग एक बजे मैंने कहा कि इंदिरा जी, मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं, जो प्रस्ताव लाया गया है उसका मैं विरोध करूंगा। यदि प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया गया तो इस प्रस्ताव की सार्वजनिक रूप से निंदा करूंगा। इसका नतीजा यह होगा कि आप मुझे पार्टी से निकालने के लिए विवश होंगी। मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है, पर इसे स्पष्ट कर देना अपना कर्तव्य समझता हूं।’
आज एक सजग नागरिक बार–बार सोचेगा कि चंद्रशेखर को इमरजेंसी की घोषणा से पहले ही क्यों बंदी बनाया गया? अगर यह प्रश्न किसी के मन–मस्तिष्क में उठता है तो यह अकारण नहीं है, इसके ठोस कारण हैं। चंद्रशेखर उस समय कांग्रेस की कार्यसमिति के निर्वाचित सदस्य थे। वे इंदिरा गांधी की मर्जी के खिलाफ चुनाव लड़े और जीते। उस समय कांग्रेस कार्यसमिति मात्र एक ठप्पा नहीं होती थी। कांग्रेस की नीतियों का निर्धारण कार्यसमिति में ही होता था। उस पर बहस भी होती थी। ऐसी सर्वोच्च समिति के युवा तुर्क प्रसिद्धि वाले चंद्रशेखर की गिरफ्तारी में कोई बड़ा रहस्य अवश्य होना चाहिए। यही सोचकर उसे जानने की उत्सुकता आज भी है। जो भी वह राज जानना चाहता है उसे चंद्रशेखर की जेल डायरी पढ़नी चाहिए। उसमें स्वयं चंद्रशेखर ने इसे बताया है और समझाया है।
एक दिन उनसे जेल में मिलने एक अफसर आया। उनकी उंची राजनीतिक हैसियत के कारण जेल में जो उनसे मिलना चाहता था वह मिल सकता था। दूसरे बंदी नेताओं पर बहुत पाबंदियां थी। लेकिन चंद्रशेखर उससे परे थे। संभवतः हरियाण के मुख्यमंत्री बंशी लाल का आदेश था। जो अफसर आया उसने चंद्रशेखर से कहा कि आप और इंदिरा गांधी के बीच कटुता कम्युनिस्टों ने पैदा की है। इस समय कांग्रेस के कुछ नेता कम्युनिस्टों की आलोचना कर रहे हैं। इसलिए आप और इंदिरा गांधी में दूरी कम हो सकती है। इस पर चंद्रशेखर जी ने उनसे कहा कि ‘चाहे कम्युनिस्ट मित्रों और उनके समर्थकों ने जो भी भूमिका अदा की हो, मैं ऐसा मानता हूं कि मेरे प्रति इंदिरा गांधी का कोप अन्य कारणों से है। जहां ज्यादातर लोग उनके बिना राष्ट्र के अस्तित्व को ही संकटग्रस्त मानते थे, मैं अपने को इस मंतव्य से अलग पाता था। साथ ही उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली से भी मेरी असहमति थी। मेरे जैसा व्यक्ति ऐसा साहस करे, यह इंदिरा गांधी सहन नहीं कर सकती थीं।’
यही कारण था कि इंदिरा गांधी ने चंद्रशेखर को अपना विरोधी समझा और 25 जून, 1975 की आधी रात के बाद गिरफ्तार कराया। जिसका विवरण उन्होंने अपनी जेल डायरी में 26 जून को लिखा। जेल डायरी के पहले खंड में यह अंश है, ‘प्रातः 3.30 बजे टेलीफोन की घंटी बजी। खबर मिली कि जेपी को गिरफ्तार करने पुलिस पहुंच गई है। सोये से उठते ही यह खबर विचित्र लगी। ऊहापोह की स्थिति। ऐसा लगा कि एक भंवर में फंस गए हैं। कहां जाना है, किधर किनारा है, कुछ पता नहीं।’ इस विपरीत और आकस्मिक परिस्थिति में भी चंद्रशेखर की प्रत्युत्पन्न बुद्धि ने काम किया। उन्होंने अपने एक सहयोगी से कहा कि देखो कहीं हमारे यहां भी पहरा नहीं हो। उन्हें बताया गया कि तब तक दिल्ली पुलिस नहीं आई थी। उन्होंने लिखा है कि वे तुरंत जेपी से मिलने गए। वह स्थान गांधी शांति प्रतिष्ठान था। वहां उन्होंने देखा कि जेपी पुलिस की गाड़ी में बैठ गए हैं। वे उस गाड़ी के पीछे–पीछे अपनी टैक्सी से पार्लियामेंट थाने पहुंचे।
चंद्रशेखर की मनोदशा तब क्या थी? इसे इन पंक्तियों से अनुभव किया जा सकता है, ‘एक ही बात मन में उठती रही, क्या हो रहा है? क्या करूं? कुछ राह नजर नहीं आती।’ उसी समय उनसे एक पुलिस अफसर मिलने आया। दूसरा कोई होता तो चौंक जाता। चंद्रशेखर से जब उस अफसर ने कहा कि आपके नाम भी वारंट है तो यह सूचना उनके लिए बड़े संतोष की थी। कांग्रेस का एक बड़ा नेता क्या तब ऐसी सूचना के लिए तैयार होता? चंद्रशेखर का बेजोड़पन इसी में है। उन्होंने अपनी जेल डायरी में ये शब्द लिखे, ‘उस अफसर ने जब मेरे वारंट की बात की, तो बड़ा अच्छा लगा। एक संतोष हुआ। शांति मिली। शायद इस कारण कि दुविधा में पड़ा था। ऐसे अवसर पर सदा ही परिस्थितियां, मुझे एक पथ पर डाल देती हैं। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ।’
जिन्होंने सिर्फ इमरजेंसी का नाम सुना है वे संभवतः नहीं समझ सकेंगे कि उपर के पैरे की आखिरी दो लाइन में चंद्रशेखर ने जो लिखा उसका मर्म क्या है! जिन्होंने इमरजेंसी का अंधेरा देखा, भुगता और लोकतंत्र के उजाले के लिए 21 महीने इंतजार में बिताया। उस दौरान जो संभव था वह सक्रियता बरती। चाहे वह बंदी जीवन की हो, चाहे भूमिगत सक्रियता की हो या दोनों की हो। कुछ लोग बड़ी नसीब वाले थे जो जेल में भी रहे और बाहर भी उन्हें भूमिगत रहने का अनुभव मिला। ऐसे लोग ही चंद्रशेखर के साहस को समझ सकते हैं। जब पुलिस अफसर उन्हें उनके वारंट की सूचना देता है तो वे उसे अपने लिए ‘एक पथ’ समझ लेते हैं। वह पथ जो बंदी जीवन का है। जिसमें संघर्ष है, तपस्या है और तानाशाही से लड़ने का संकल्प भी है।
चंद्रशेखर ने अपने मनोभाव को इन शब्दों में तब लिपिबद्ध किया, ‘जो कुछ हो रहा था, उसका साथ देना मेरे लिए असंभव था। कैसे कोई कह दे कि भारत का भविष्य एक व्यक्ति पर निर्भर है। इतनी चाटुकारिता, इतनी दासता अपने से संभव नहीं। अच्छा ही हुआ। थोड़ी देर बाद एक अवसाद–सा छा गया। मेरी आजादी नहीं रही। न लोगों से मिलने की, उन्हें सुनाने की और न उनकी सुनने की। यह विवशता खल गई। एक बेचैनी हुई। ऐसा लगा जैसे कुछ लोग अनिश्चित समय के लिए बिछुड़ रहे हैं। फिर अपने को संभाला।’ 1975 के आखिरी दिन चंद्रशेखर ने अपनी डायरी में जो लिखा वह इमरजेंसी के दुष्प्रभाव का सार है, ‘इस एक साल में देश ने ऐसी करवट ली, जिससे सब कुछ उलटी दिशा में चल पड़ा, सारी मान्यताएं, जो राजनीतिक आचार की आधारशिला थीं, भुला दी गईं। आज उनकी पूर्णाहुति चंडीगढ़ में कर दी गई। जिस प्रकार ललित नारायण मिश्र के कार्यों की सराहना की गई, जिस प्रकार संजय गांधी के नेतृत्व को उछाला गया, जिस प्रकार इंदिरा गांधी ने अपने भाषण में अहंकार की अभिव्यंजना की, उसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि 1976 का साल इस देश के लिए कौन–सा वरदान (अभिशाप) लेकर आ रहा है। प्रधानमंत्री ने विरोधी दलों पर जो–जो तीखे प्रहार किए, उससे बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। किंतु जिस प्रकार अपने साथियों की बुजदिली का जिक्र किया, उससे यह भी साफ हो गया कि कुछ और लोगों को पदच्युत करने या अपमानित करने पर वे उतारूं हैं।’
इमरजेंसी में ही इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव करवाया। जिससे जनता पार्टी की सरकार बनी। लोकतंत्र वापस आया। उस चुनाव परिणाम के बाद एक दिन चंद्रशेखर इंदिरा गांधी से मिलने उनके निवास पर पहुंचे। उस समय वे सफदरजंग की सरकारी कोठी में ही थीं। वही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का निवास था। चंद्रशेखर जी बिना किसी को बताए वहां पहुंचे थे। लेकिन उनकी भेंट में कोई अड़चन नहीं आई थी। चंद्रशेखर जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘मैंने इंदिरा जी से पूछा, आप कैसी हैं? हताश निराश इंदिरा गांधी ने करूणा–भरी निगाहों से मेरी तरफ देखा। मुझसे पूछा कि आप कैसे हैं? मैंने उनसे कहा कि जेल से छूटने के बाद कई बार मैंने सोचा कि आपसे मिलकर पूछूं कि आपने यह भयानक काम क्यों किया? इमरजेंसी लगाने की सलाह आपको किसने दी थी? इमरजेंसी थोपना देश के साथ क्रूर मजाक था। यह फैसला आपने क्यों किया? बात करते हुए मैंने महसूस किया कि इंदिरा गांधी बेहद परेशान हैं। उनको अपनी और परिवार की चिंता सता रही है। कहने लगीं कि बहुत परेशानी है, लोग आकर बताते हैं कि संजय गांधी को जलील किया जाएगा। दिल्ली में घुमाया जाएगा। मुझे मकान नहीं मिलेगा। हमारी सुरक्षा खत्म कर दी जाएगी। मैंने कहा कि ऐसा कुछ नहीं होगा। मैंने ईमानदारी से यह बात कही, क्योंकि मैं यही महसूस करता था। इंदिरा गांधी की बात सुनकर मुझे हैरानी हुई। सोचने लगा कि क्या यह वही महिला हैं जिन्हें देश का पर्याय बताया जाता था?’